हर साल शिकारी ले लेते हैं आधा दर्जन वनकर्मियों की जान

 वनकर्मियों
  • शासन फिर भी नहीं दे रहा गोली चलाने का अधिकार  

भोपाल/गौरव चौहान/बिच्छू डॉट कॉम। मध्य प्रदेश ऐसा राज्य है जहां पर हर साल औसतन आधा दर्जन वनकर्मियों को शिकारियों के हाथों अपनी जान गंवानी पड़ती है, इसके बाद भी शासन जंगलों व वन्य प्राणियों की रक्षा करने वाले इस अमले को ड्यूटी के समय गोली चलाने की अनुमति देने को तैयार नहीं है।
खास बात यह है की जब गोली चलाने की अनुमति नही है तो फिर वन विभाग को सुरक्षा के नाम पर हथियार खरीदने की अनुमति ही क्यों दी गई है। बड़ा सवाल यह है की जब शिकारी हथिसरबंद पुलिस कर्मचारियों की जान ले सकते हैं तो निहत्था वन अमला कैसे सुरक्षित है। अगर बीते 12 सालों में हुई वनकर्मियों की मौतों का आंकड़ा देखा जाए तो इस अवधि में 73 वनकर्मी वनमाफिया से मुकाबला करते हुए जान गंवाने को मजबूर हुए हैं। इसके बाद भी शासन प्रशासन से लेकर सरकार इस मामले में गंभीर नहीं दिख रही है। यही वजह है की उन्हें अभी तक बंदूक चलाने के अधिकार तक नहीं दे पाई है।
खास बात यह है की बीते एक दशक में वन मुख्यालय द्वारा सात बार सरकार को प्रस्ताव भेजकर वन कर्मियों के लिए पुलिस के समान अधिकार मांगे गए हैं, पर हर बार प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया। इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि हथियार चलाने के अधिकार से वनकर्मी निरंकुश हो जाएंगे। इसका फायदा उठाते हुए वन माफिया से लेकर शिकारियों ने बीते साल ही वन कर्मियों पर 27 बार हमले किए हैं। वन विभाग में वायरलेस व्यवस्था जहां पूरी तरह से बंद पड़ी हुई है तो वहीं 10 साल पहले खरीदी गई तीन हजार बंदूकें भी जंग खा रही हैं। इसकी वजह से ही प्रदेश में लगातार वन्यप्राणियों का शिकार, वन क्षेत्र से रेत-मुरम का उत्खनन, लकड़ी चोरी जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं। हालात यह है की इन खूंखार लोगों के सामने निहत्थे वनकर्मी महज डंडा लेकर जंगलों की निगरानी करते हैं। इसमें भी खास बात यह है की कई जिलों में तो पुलिस ही वन कर्मचारियों की मदद नहीं करती है। कई मामलों में तो पुलिस का व्यवहार आरोपियों के पक्ष में दिखता है। खासतौर पर भिंड और मुरैना जिलों में तो हालात बेहद ही खराब रहते हैं।
हथियार हैं, लेकिन दिखाने के लिए
प्रदेश में 19 हजार 476 वनकर्मियों को 3157 बंदूक एवं 286 रिवाल्वर दी गई हैं, पर उन्हें वे चला नही सकते हैं। अगर ड्यूटी के समय जान पर बनने के बाद भी अगर गोली चलाई गई तो उन्हें मजिस्ट्रियल जांच का सामना करना पड़ेगा। इसमें भी अगर वे साक्ष्य देने में सफल नहीं रहे तो फिर सजा होनी पक्की है। इसकी वजह से हमला होने के बाद  भी वनकर्मी बंदूक नहीं चलाते हैं और शिकारी या लकड़ी माफिया मारपीट कर चले जाते हैं। इसी तरह से एक वनरक्षक 12 से 15 वर्ग किमी जंगल की देखरेख करता है। इस दौरान अगर उसे कोई लकड़ी चोर या शिकारी मिलता भी है तो वह कुछ नहीं कर पाता है। इस स्थिति में घने जंगल से फोन लगता नहीं और वायरलेस सिस्टम बंद पड़ा रहता है। इसका ही परिणाम है की इसी साल  मार्च में रायसेन लिे के सिलवानी में लकड़ी चोरों ने एक रेंजर की डंडों और पत्थरों से पीट -पीटकर हत्या कर दी थी। इसी तरह से बीते साल देवास जिले के पुंजापुरा में लकड़ी चोरों ने वनरक्षक मदनलाल वर्मा को गोली मार दी थी। इस मामले में मध्य प्रदेश कर्मचारी मंच के अध्यक्ष अशोक पाण्डेय का कहना है की अगर वनकर्मियों को बंदूक चलाने के अधिकार होते, तो न हर साल वनकर्मियों की हत्या होती और न ही किसी शिकारी की पुलिस पर गोली चलाने की हिम्मत पड़ती। शायद वनकर्मी के धोखे में वे पुलिसकर्मियों पर गोली चला बैठे।
नहीं लिया सबक
शिकारियों ने गुना के आरोन में शनिवार तड़के जिस तरह गोली मारकर पुलिस जवानों की हत्या की गई है, ठीक उसी तरह 14 दिन पहले भोपाल के जंगल में भी शिकारियों ने  गोलियां चलाई थीं। यह हमला 30 अप्रैल की रात-आठ बजे बैरसिया रेंज के जंगल में हुआ था। वह तो गनीमत थी कि इस हमले में चौकीदारों की जान नहीं गई। इसके बाद भी कोई सबक नहीं लिया गया। इसके बाद भी प्रदेश में भोपाल को छोड़कर पुराने शिकारियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई।
सात साल की सजा
काला हिरण अनुसूची-एक में आता है। इसमें संकटग्रस्त वन्य प्राणियों को शामिल किया गया है। इनका शिकार करने वालों को अधिकतम सात वर्ष तक की सजा का प्रविधान है। वन्यप्राणी विशेषज्ञ आर के दीक्षित के मुताबिक सजा की यह अवधि बहुत कम है, इसे बढ़ाया जाना चाहिए। नियमों में समय के साथ बदलाव करने की जरूरत महसूस होती है।

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