-19 दिवसीय बजट सत्र के शुरू होने के साथ ही उठने लगे सवाल
-प्रदेश में तय समय से पहले समाप्त हो जाते हैं सत्र
भोपाल/हरीश फतेहचंदानी/बिच्छू डॉट कॉम। मध्यप्रदेश विधानसभा का बजट सत्र आज राज्यपाल के अभिभाषण के साथ शुरू हो गया है। इसके साथ ही यह सवाल भी उठने लगा है कि क्या यह सत्र तय समय तक चलेगा। दरअसल, प्रदेश में एक तो विधानसभा सत्रों की अवधि कम दिन की होने लगी है, उस पर सत्र पूरे दिन भी नहीं चल पाता है। इसलिए बजट सत्र को भी आशंका की दृष्टि से देखा जा रहा है। हालांकि सर्वदलीय बैठक में विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम ने पार्टियों से पूरे समय सत्र चलाने को कहा है।
गौरतलब है कि बजट में जनहित के मुद्दे विधायक उठाएंगे तो सरकार जरूरी विधेयक और अगले वित्तीय वर्ष का बजट पेश कर उसकी सदन से मंजूरी ली जाएगी। आज से शुरू हुआ यह सत्र 25 मार्च तक आयोजित किया गया है। 19 दिवसीय बजट सत्र के दौरान कुल 13 बैठकें प्रस्तावित हैं। सत्र अपनी निर्धारित अवधि तक चलेगा और क्या पहले से तय बैठकें पूरी हो पाएंगी इसे लेकर अभी से सवाल उठ रहे हैं। सवाल उठने की बाजिव वजह भी है। पिछले पांच सालों में कोई भी सत्र ऐसा नहीं बीता जब निर्धारित बैठकें पूरी हो पाई हों।
छोटे होते जा रहे सत्र
विधानसभा को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है। यहां से पूरे मध्यप्रदेश के लिए कानून बनते हैं। जनता के मुद्दे भी इसी मंच पर चुने हुए जनप्रतिनिधि उठाते हैं पर कुछ सालों से विधानसभा के सत्र लगातार छोटे हो रहे हैं। बैठकों की संख्या लगातार कम हो रही है और सत्र का मुख्य मकसद जनता से जुड़े सरोकारों से ज्यादा सरकारी बिजनेस मसलन बजट, अनुपूरक बजट और विधेयकों को पारित कराना रह गया है। इसके अलावा सत्र के दौरान होने वाले हंगामों के कारण कार्यवाही भी तय समय तक नहीं चल पाती और सत्र अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिए जाते हैं। सत्र न चलने के कारण अधिकारियों का डर भी खत्म हो गया है। अन्यथा सत्र शुरू होते ही अधिकारियों में हड़बड़ाहट रहती थी कि न जाने कौन सा सवाल आ जाए।
एक-दूसरे पर दोषारोपण
विधानसभा का सत्र तय समय तक न चल पाने के पीछे सत्ता पक्ष और विपक्ष एक दूसरे पर दोषारोपण करते हैं। सत्ता पक्ष का कहना होता है कि विपक्ष सकारात्मक और जनहित के मुद्दे उठाने की बजाए हंगामे पर केन्द्रित रहता है तो विपक्ष का आरोप रहता है कि सरकार उनकी बात सुनना ही नहीं चाहती और जरूरी बिजनेस निपटाकर सत्र समाप्त कर देती है। विपक्ष लगातार बैठकें कम होने पर भी सवाल उठाता रहा है। विधानसभा में अगर जनहित के मुद्दों पर गंभीरता से चर्चा करनी है और उनका सदन में ही हल निकालना है तो इसे लेकर दोनों पक्षों को गंभीर होना होगा और सदन में हंगामें की बजाए सार्थक चर्चा पर अपना फोकस रखना होगा। गौरतलब है कि लोकसभा और विधानसभा के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में हमेशा इस बात पर जोर दिया जाता है कि लोकसभा की कार्यवाही एक साल में कम से कम सौ दिन और बड़ी विधानसभाओं की कार्यवाही 75 दिन चलनी चाहिए। ताकि ज्यादा से ज्यादा जनता के मुद्दों पर चर्चा हो सके। छोटी विधानसभाओं के लिए यह अवधि 60 दिन रखने की वकालत की जाती है। विधानसभा के एक पूर्व अध्यक्ष का कहना है कि पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में यह बात उठती है पर ऐसा कोई लिखित में नियम नहीं है। लिहाजा सरकारें इसका पालन करने के लिए बाध्य भी नहीं है। यही वजह है कि सालभर में कभी 75 बैठकों का आयोजन नहीं हो पाया।
साल दर साल कम होती जा रहीं बैठकें
परंपरा है कि विधानसभा सत्र के पहले सत्र सुचारू रूप से चले इसके लिए अध्यक्ष सर्वदलीय बैठक बुलाते हैं और इसमें तय होता है कि सदन पूरे समय चले ,पर ऐसा अधिकांश बार नहीं हो पाता। पिछले कुछ सालों की बानगी देखें तो 2018 में बजट सत्र कुल 31 दिन का रखा गया और इसमें 18 बैठकें होनी थी पर 13 ही हो पाई। 2019 में 19 दिवसीय सत्र में 15 बैठकें तय थीं पर 13 ही हो पाई। 2020 का पूरा साल कोरोना की भेंट चढ़ गया और इस साल महज तीन बैठकें ही हो पाई। 2021 में 33 दिन का सत्र आहूत किया गया था और इसमें कुल 23 बैठकें होनी थी पर 13 बैठकें ही हो पाई। यहां यह भी गौरतलब है कि कुछ साल पूर्व विधानसभा का बजट सत्र कम से कम एक महीने का हुआ करता था और कम से कम 29 से 22 बैठकें तो अनिवार्य रूप से हुआ करती थीं।
07/03/2022
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